इस हफ्ते की शुरुआत में मेरी एक अंशकालिक सहयोगी ने एक युवक की कहानी सुनाई, जिसकी मात्र दस रुपये के लिए कई लोगों की मौजूदगी में बेरहमी से हत्या कर दी गई। हुआ यों कि वह युवक गोलगप्पे का ठेला लगाता था, वहीं उससे कुछ कदम की दूरी पर एक सब्जी बेचने वाला था, जिसने इससे दस रुपये का एक प्लेट गोलगप्पा उधार लिया था। बाद में उसने पैसे देने से इन्कार कर दिया, तो दोनों के बीच इस बात पर कहा-सुनी हो गई और बात इतनी बढ़ गई कि उस व्यक्ति ने एक बोतल उठाकर गोलगप्पे वाले का गला काट दिया।
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यह अपराध जितना चौंकाने वाला है, उससे भी ज्यादा चौंकाने वाली बात है कि यह घटना एक व्यस्त और चहल-पहल भरे बाजार में लोगों की नजरों के सामने हुई। मेरी घरेलू सहायिका ने बताया कि लोग सिर्फ देख रहे थे और घटना का वीडियो बना रहे थे। कोई भी न तो उसे बचाने आया और न ही बीच-बचाव करने आया। इसका नतीजा यह हुआ कि दो मासूम बच्चों के बीस वर्षीय पिता ने खून से लथपथ जमीन पर गिरकर दम तोड़ दिया। दुर्भाग्य से यह सार्वजनिक उदासीनता का अकेला मामला नहीं है, बल्कि देश भर के कई शहरों और कस्बों में ऐसा होता है।
पिछले हफ्ते न्यूज चैनलों पर एक वीडियो वायरल हुआ था, जिसमें सुबह-सुबह एक युवती को एक ऐसे व्यक्ति ने मार डाला, जिसे उसका पूर्व प्रेमी बताया जा रहा था। यह मामला प्रेम प्रसंग में आई कड़वाहट का लग रहा था। पीठ पर बैग लटकाए हुए उस लड़के ने युवती पर लगातार हमला किया, जबकि वहां खड़े अन्य लोग, खासकर उससे काफी बड़े लोग यह सब देख रहे थे। यह कोई ऐसा मामला नहीं था, जिसमें कोई खतरनाक अपराधी बंदूक या किसी घातक हथियार से लोगों को डरा रहा हो, बल्कि यह एक छोटे कद का लड़का था, जो युवती पर हमला कर रहा था।
ऐसी हिंसा के सामने लोगों की यह निष्क्रियता क्या बताती है? पिछले वर्ष एक अन्य लड़के को पत्थर से एक लड़की के सिर को कुचलते हुए देखा गया था, जबकि आसपास खड़े कई लोग मूकदर्शक बने हुए थे। शहर भर में लगे सीसीटीवी कैमरे इन भयावह घटनाओं को कैद करने का बहुत अच्छा काम कर रहे हैं, लेकिन वे यह भी दिखाते हैं कि लोगों की नैतिकता कितनी गिर चुकी है। इन सभी मामलों में और अन्य मामलों में भी तथ्य यह है कि असहाय और असुरक्षित पीड़ित को क्रूरता का सामना करना पड़ता है और लोग हस्तक्षेप नहीं करते हैं। यह हमें न केवल हैरान करता है, बल्कि यह भी बताता है कि एक बार घर से निकलने के बाद आप बिल्कुल अकेले होते हैं।
दूसरी तरफ ऐसे भी उदाहरण हैं, जब भले लोगों ने मामले में हस्तक्षेप किया और उन्हें उसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी। कुछ साल पहले मुंबई में रुबेन और कीनन नामक दो लड़कों को तब अपनी जान गंवानी पड़ी, जब वे अपने समूह की दो लड़कियों को छेड़खानी करने वालों से बचा रहे थे। उस समय भी काफी सारे लोग अपराधियों को उन्हें पीटते और चाकू घोंपते देख रहे थे, लेकिन किसी ने बीच-बचाव नहीं किया। कीनन तो वहीं मर गया, लेकिन रुबेन 11 दिनों तक अस्पताल में जिंदगी की जंग लड़ता रहा। एक बार फिर यह घटना राष्ट्रीय समाचार बनी।
ऐसी घटनाओं पर बाद में आक्रोश जताना और नैतिक रूप से निंदा करना एक नियमित अभ्यास हो गया है, लेकिन वास्तव में कुछ नहीं बदलता है। कीनन और रुबेन की घटना 2011 में हुई थी और अब 2024 में भी हम इन स्थितियों से जूझ रहे हैं। ऐसा लगता है कि ये घटनाएं बहुत दूर नहीं, बल्कि हमारे पड़ोस में हो रही हैं, जैसा कि मेरी घरेलू सहायिका ने बताया। बहुत संभव है कि हममें से कोई भी ऐसी किसी घटना में फंस जाए और बहुत कम मदद मिले।
समाज के लोगों के बीच एक अघोषित अनुबंध होता है कि हम एक-दूसरे का ख्याल रखेंगे और खतरों का सामना करते हुए एक-दूसरे के प्रति दयालुता दिखाएंगे। यह एक मानवीय अनुबंध है, जो उन मानवीय मूल्यों और अनुभवों पर आधारित होते हैं, जिन्हें एक समाज के रूप में हम साझा करते हैं। हालांकि अक्सर इस अनुबंध का उल्लंघन होता है। यह बेहद आम है और निर्मम तरीके से होता है, जैसे ट्रैफिक में एंबुलेंस को रास्ता देने या जानलेवा खतरे में पड़े किसी व्यक्ति की मदद करने से इन्कार करना।
इस तरह की निष्क्रियता का क्या मतलब है? यह एक मनोवैज्ञानिक स्थिति है, जिसे ‘बाईस्टैंडर प्रभाव’ कहा जाता है, जो कुछ हद तक इसके बारे में खुलासा करता है। वर्ष 1964 में किट्टी जेनोविस नामक एक महिला बारटेंडर की न्यूयॉर्क में बलात्कार करने के बाद हत्या कर दी गई। मीडिया में छपे एक लेख में दावा किया गया कि 38 लोगों ने कुछ अप्रिय घटना सुनी या देखी, लेकिन किसी ने भी पुलिस को नहीं बुलाया। इससे व्यापक स्तर पर लोगों में दहशत फैली और एक अध्ययन शुरू हुआ, जिसे ‘बाईस्टैंडर प्रभाव’ के नाम से जाना जाता है। पाया गया कि जब किसी सार्वजनिक स्थल पर कोई अपराध होता है, तो वहां मौजूद लोगों में जिम्मेदारी की भावना बिखर जाती है। हर कोई मानता है कि कोई दूसरा आगे बढ़कर हस्तक्षेप करेगा, हर व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत भागीदारी से जुड़े जोखिम का हिसाब लगा रहा होता है। यह व्यक्तिगत सोच सामूहिक निष्क्रियता की ओर ले जाती है।
इसके अलावा, पुलिस और व्यवस्था की जटिल प्रक्रिया के कारण लोग तुरंत मुंह फेर लेते हैं, उन्हें यह भय रहता है कि अगले कुछ वर्षों तक वे नौकरशाही के चक्कर में फंस जाएंगे। इन सामाजिक और कानूनी पचड़ों के कारण लोग उदासीन होकर मूकदर्शक बन जाते हैं। फिर स्वार्थ का भी एक अनिवार्य कारण होता है, जो आत्मरक्षा का सुझाव देता है। हमारे हाईटेक, इंटरनेट द्वारा संचालित समाजों में दूसरे लोगों से अलग-थलग रहने की प्रवृत्ति तेजी से सामान्य होती जा रही है। इंटरनेट और एआई की सहायता से सोचने वाली मशीनों पर हमारी बढ़ती निर्भरता ने समुदाय के प्रति हमारी भावना में कमी लाई है। यह अन्य मनुष्यों तक हमारी पहुंच को सीमित करता है।
समाज के अन्य लोगों के साथ घटते संवाद के कारण धीरे-धीरे मानवीय सहानुभूति भी दम तोड़ देती है। अस्तित्व के जंगल में हम सभी सबसे ऊंची दहाड़ वाले शेर बनना चाहते हैं और अपने अकेले रास्ते पर चलना चाहते हैं, लेकिन इस बात की संभावना ज्यादा है कि हिरणों का झुंड ज्यादा खुश रहता हो, जो संकेतों से एक-दूसरे को सचेत करता है और सह-यात्री के रूप में जीवन बिताता है।